Monday 10 October 2016

अपने मन की

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‘बस एक निर्झरिणी भावनाओं की - now available on www.amazon.in
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Bas Ek Nirjharni Bhawnaon Ki
Hardcover : Rs.175/=
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अपने मन की
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'बस एक निर्झरणी भावनाओं की' आपके हाथ में है. मैं साहित्यकार होने का दावा नहीं करता. मेरी भाषा कट्टर रूप से हिंदी तो नहीं पर हिंदुस्तानी ज़रूर है जो सहज है सरल है. मेरी रचनाएँ किसी बंधन से बंधी हो कर स्वतंत्र रूप से किसी झरने के सामान काव्य रस की अनुभूति कराती है. प्रत्येक कवि का अपनी अनुभूतियों को, अपनी रचना के माध्यम से, मुखरित करने का अपना ढंग होता है. कविता कैसी भी क्यों ना हो, एक यथार्थ को, एक सत्य को ही प्रकट करती हैहाँ उस यथार्थ को, उस सत्य को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए कल्पना का सहारा अवश्य लेना पड़ता है. 'बस एक निर्झरणी भावनाओं की' में भी मेरी रचनाओं में एक सरिता के सामान, एक झरने के सामान पाठको को काव्य रस में मनोरंजक रूप से भिगो लेने की क्षमता है.
कवि कल्पनाशील होता है उसकी कल्पना एक ओर जहाँ आकाश के एक छोर से दुसरे छोर तक पहुँचने के लिए तत्पर रहती है वंही सागर की अताह गहराई में डुबकियां लगाने से गुरेज़ नहीं करती पर यह मान कर चलिए सांसारिकता में धंस कर भी कवि यथार्थ का, सत्य का दामन नहीं छोड़ता. यही कारण है कि पाठक मेरी रचनाओं के द्वारा मनोरंजन के साथ साथ कल्पनाजनित सत्य ओर यथार्थ के साथ भी रूबरू होंगे. हर कविता/रचना किसी ना किसी रूप से मुझसे, मेरी अनुभूतियों से, मेरे अनुभवों से, मेरी प्रेरणाओं से, कंही कंही झुड़ी हुई हैं जो  पारवारिक, सामाजिक , सांसारिक ओर देश में हो रहे घटनाचक्रों से जन्मे हास्य-विनोद , आशाओं- निराशाओं , कुंठा-त्रासदी ,प्रेम-नफरत का परिणाम है.

बकर्दे-शौक नहीं जर्फे-तंगनाए ग़ज़ल,
कुछ और चाहिये वुसअत मेरे बयाँ के लिये.............(गालिब)
(बकर्दे-शौक: इच्छानुसार, ज़र्फे-तंगनाए ग़ज़ल: ग़ज़ल का तंग ढांचा, वुसअत: विस्तार )
मिर्ज़ा ग़ालिब का यह शेर उनकी उस मज़बूरी को बयान करता है जिसमे वे अपनी इच्छानुसार अपनी बात को ग़ज़ल के तंग ढांचे में/ बंदिशों में रह कर नहीं सकते थे और उनको अपनी बात रखने के लिए उन्हें अधिक विस्तार की आवश्यकता प्रतीत होती थी.
मुक्तछंद में रचना करने का साहस अगर पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के उपरांत किसी कवि-शायर ने मुझे दिया है तो वह उर्दू के महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शेर ने दिया जिसका भाव यह है की कवि बंदिशों में रह कर/ छंदों के विधि विधान में रह कर अपनी भावनाओं को थोड़े विस्तार के साथ या मुक्त हो कर नहीं कह सकता है. प्रस्तुत काव्यसंग्रह में मेरी रचनाएँ अधिकतर मुक्तछंद में ही रची गयी हैं. कुछ रचनाएँ पाठकों को ज़रूर ग़ज़ल जैसी लगेंगी पर में उन रचनाओं को  लयात्मक मुक्तछंदिय रचना के रूप में ही लेता हूँ जो  मापनी (बहर), सामन्त (काफ़िया) या पदांत (रदीफ़) की बंदिशों से  थोड़ा हट के ज़रूर हैं पर भावरस और मनोरंजकता से भरपूर हैं.

रचनाएँ तोलो छंद मापनी के तराज़ू में
मेरी भावनाओं को खुला आसमान चाहिए............( त्रिभवन कौल )

काव्य रस जीवन के दलदल में उगा एक ऐसा नीलकमल है जिसको हाथ में लेने का श्रेय एक काव्य प्रेमी को ही मिलता है. मैंने उसी नीलकमल को 'बस एक निर्झरणी भावनाओं की' के ज़रिये अपने पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास भर किया है. 'बस एक निर्झरणी भावनाओं की' में रची मेरी कवितायेँ , द्विपदिया या चतुष्पदियां मेरे पाठकों का मनोरंजन के साथ साथ उनको भिन्न भिन्न परिस्तिथियों ओर समकालीन समस्याओं से भी अवगत करा उनके प्रति उनकी सम्वेंदनशीलता को हवा दे तो मैं अपना यह तीसरा प्रयास सफल मानूगाकोई भी रचना यदि किसी भी पाठक के दिल तक पहुँच कर उनके दिल को छू लेती है तो में इसे ही अपना पुरस्कार समझूंगा.
आदर सहित ओर सप्रेम

त्रिभवन कौल


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