Friday 13 October 2017

एक मुक्तक -1

एक मुक्तक
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दिल तो है अरमान कहाँ ?
घर तो है सम्मान कहाँ ?
खोजती ईश्वरी' नज़र
मनु सारे इंसान कहाँ ?
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सर्वाधिकार सुरक्षित /त्रिभवन कौल

कवि, सोच और कविता



कवि, सोच और कविता
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अक्षर शब्द वाक्य ,ज़हन में बहुत उभरते हैं
रोशनाई का हाथ पकड़ ,
कागज़ पर उतरने को मचलते हैं
पर सोच का क्या करूँ, एक बड़ी बाधा है
शब्दों पर हमेशा इसने अपना हक़ साधा है I

अपनी जग़ह हर शब्द सटीक बैठना चाहिए
कभी कड़वा भी हो तो मीठा लगना चाहिए
इसी से तो कवि की निपुणता का पता चलता है
कविता का श्रृंगार तभी प्रशंसा का पात्र बनता है I

जुलाहे के समान कवि ताना बाना बुनता है
किसी शिल्पी के समान अपनी रचना को गढ़ता है
सामयिक, सामजिक, सामरिक समस्याओं पर
महीन मीनाकारी कर
सामजिक चेतना को जागृत कर
एक बदलाव लाने की क्षमता रखता है
फिर भी जीवन यापन के लिए
जाने क्यों दर दर भटकता है ?

प्रकाशक कविताओं को बिकाऊ नहीं समझते
पढ़ने वाले, मुफ्त की किताब
हजम करतें है वरना नहीं करते
कवि का दर्द समझे भी तो भला कौन समझे
जिनका कवि हृदय हो ऐसे गण कभी कभार ही मिलते I

लिखने की कसौटी पर  हर कोई खरा नहीं उतरता है
जो खरा उतरता भी है  तो उसका मोल नहीं लगता है
हम कवियों की सदियों से दशा भी कुछ ऐसी ही है यारो
चार पैसे बने तो ठीक वर्ना फाका मस्ती में दिल रमता है यारो II

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सर्वाधिकार सुरक्षित /त्रिभवन कौल
इस कविता का प्रकाशन सितम्बर २०१७ में  "संदल सुगंध ' काव्यसंग्रह में हुआ है। 

Thursday 12 October 2017

वर्ण पिरामिड (57-58)

वर्ण पिरामिड (पटाखा/पटाखे)
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क्या?
..आह!
..पटाखे
..निषेधाज्ञा !
.......पर्यावरण
...क्यों एसी चलन ?
..........बस यूँ प्रवचन I
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..मना
..त्यौहार 
.....प्रदूषण  
पटाखा मुक्त 
..मुद्दई है सुस्त 
गवाह भयो चुस्त I
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सर्वाधिकार सुरक्षित /त्रिभवन कौल

Tuesday 10 October 2017

CHILDREN OF LOST GODs ( Translated into French )

CHILDREN OF LOST GODs
 ( Translated into French )
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Dear friends
This is the 13th poem of mine which has been translated into French by none other than Honourable Athanase Vantchev de Thracy, World President of Poetas del Mundo , undoubtedly one of the greatest poets of contemporary French.
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CHILDREN OF LOST GODs
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Extended palms, seeking alms
sunken eyes, skeleton arms
jaundiced skin, frail frames
children of lost Gods.

Ragged and shabby, looking ravenous
searching morsels of food, trembling and nervous
fighting the odds, weak but courageous
children of lost Gods.

Here, there and everywhere
at crossroads and traffic signals
selling wares of rich and famous
or washing utensils, running errands
at the stalls, dabhas, small eateries
under the hot sun or the sand
picture this, view not so grand
children of lost Gods.

Urchins of all ages initiated
into the crimes of different hue
slowly but surely they age to their prime
getting black listed under who is who
death stalks them every now and then
making them prey on a sly
yet  survive
forcing death to give them a bye
children of lost Gods.

Sodomised, molested or getting raped
gender distinction is never made
the claws of mafia so strong
have no choice but to go along
children of lost Gods.

Acquiring  all vices
no savior  in sight, in time of crisis
abused and used
have no emotions of their own
ocean of tears not to be shown
children of lost Gods.

Their images haunt
future in them taunt
aware yet unawares
concern for them seldom we flaunt
children of lost Gods.

Oh God Almighty
help them find the lost Gods
free them from this bondage
now act and spare the rod
let them recover
lost childhood, innocence  and battered image
children of lost Gods
children of lost Gods.
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All rights reserved/Tribhawan Kaul



LES ENFANTS DES DIEUX DISPARUS

Les paumes étendues implorant l’aumône,
Les yeux enfoncés dans leurs orbites, les bras squelettiques,
La peau marquée par la jaunisse, l’allure fragile,
Tels sont les enfants de dieux disparus.

Couverts de haillons, maladifs, l’air vorace,
Ils recherchent un peu de nourriture.
Tremblant et nerveux,
Ils luttent contre l’adversité.
Courageux malgré leur faiblesse,
Tels sont les enfants de dieux disparus.

Çà et là, partout,
Aux carrefours et aux feux,
Ils vendent des articles jetés par les gens riches et célèbres
Ou nettoient toutes sortes d’ustensiles,
Font des courses pour le compte d’autrui
Dans des boutiques en plein air, des échoppes,
Des cantines sous le soleil brûlant ou la poussière de sable.
Imaginez tout cela, ils ne sont pas à leur gloire,
Les enfants des dieux disparus.

Des garnements de tous âges, initiés
Aux crimes de toutes sortes,
Lentement mais sûrement ils se perfectionnent
Et entrent dans la liste noire de « qui est qui »,
La mort les harcèle à chaque instant
Faisant d’eux des proies faciles pour les gens sournois
Et pourtant ils survivent
Et forcent la mort à leur accorder un délai,
Les enfants des dieux disparus.

Sodomisés, molestés ou violés,
Sans aucune distinction de genre,
Les griffes de la mafia sont si fortes
Qu’ils n’ont d’autres choix
Que de suivre le fil du courant,
Les enfants des dieux disparus.

Ils acquièrent  tous les vices,
Pas de sauveur en vue en temps de malheur,
Abusés et utilisés à fond,
Ils n’ont pas d’émotions propres,
Ils ne doivent pas montrer leurs océans de larmes,
Les enfants des dieux disparus.

Leurs images hantent
L’avenir avec leurs railleries, 
Conscients ou pas tout à fait,
Nous nous préoccupons rarement
Des enfants des dieux disparus.

Oh Dieu Tout-Puissant,
Aide-les à retrouver les dieux disparus,
Libère-les de cette servitude, 
Maintenant, agis et épargne leur le bâton des tyrans,
Laisse-les recouvrer
Leur enfance perdue, leur innocence
Et la conscience de leur martyre, eux, 
Les enfants des dieux disparus
Les enfants des dieux disparus.

Traduit en français par Athanase Vantchev de Thracy
Translated into French by Athanase Vantchev de Thracy
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 Born on January 3, 1940, in Haskovo, Bulgaria, the extraordinary polyglot culture studied for seventeen years in some of the most popular universities in Europe, where he gained deep knowledge of world literature and poetry.
Athanase Vantchev de Thracy is the author of 32 collections of poetry (written in classic range and free), where he uses the whole spectrum of prosody: epic, chamber, sonnet, bukoliket, idyll, pastoral, ballads, elegies, rondon, satire, agement, epigramin, etc. epitaph. He has also published a number of monographs and doctoral thesis, The symbolism of light in the poetry of Paul Verlaine's. In Bulgarian, he wrote a study of epicurean Petroni writer, surnamed elegantiaru Petronius Arbiter, the favorite of Emperor Nero, author of the classic novel Satirikoni, and a study in Russian titled Poetics and metaphysics in the work of Dostoyevsky.
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Image curtsy Google.com




Sunday 8 October 2017

धर्म परिवर्तन!




धर्म परिवर्तन!
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गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली वह बस्ती अल्पसंख्यों की थी। स्थानीय विधायक गुलाम रसूल ने जान बूझ कर मुल्ला मौलवियों के साथ मिल कर आबादी के जीवन स्तर के उत्थान करने की कोशिश कभी नहीं की क्यूंकि उसको पता था यदि ज्ञान का प्रकाश इस आबादी पर पड़ गया तो  वोट बैंक तो गया ही गया, उसका रुआब का ताम जाम भी जाएगा । उसकी नज़र हमेशा दुसरे मजहबों के बाशिंदों को अपने मजहब में परिवर्तित कराने की होती जिसके लिए उसको सरहद पार से काफी पैसा भी मिलता था। मकसद एक था , जितना ज्यादा अज्ञान ,अनपढ़ , ज़ाहिल , नादान वोट बैंक होगा उतने ही उसके समुदाय के विधायक विधान सभा में होंगे और एक दिन ऐसा आएगा जब विधान सभाओं  में उनका बहुमत  हो जाएगा। विधानसभाओं पर कब्ज़ा यानी कि हिंदुस्तान पर कब्ज़ा।  मौलाना करीमबक्श भी इसी चाल का एक मोहरा था।
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सुबह के अंधेरे उजाले में मौलाना करीमबक्श मस्जिद की चारदीवारी से बाहर निकला और लम्बे लम्बे डग भर कर गांव के ओर जाने वाली पगडंडी को नापता हुआ गांव के पश्चिमी छोर पर जा पहुंचा जहाँ से हिन्दुओं की बस्ती आरम्भ हो जाती थी । उसके मन उल्लास से ओत प्रोत था। एक हिन्दू का धर्म परिवर्तन कराने के लिए उसे १० हज़ार रूपये मिलने वाले थे दूर बैठे सरहद पार उसके आकाओं से स्थानीय विधायक द्वारा I

पगडंडी समाप्त हो चुकी थी। मंदिर सामने था जो हिन्दुओं की बस्ती का एक सूचक था। मौलाना करीमबक्श की बांछे खिल गयी। उसने मंदिर के बाहर बैठे एक मैले कुचले वस्त्र पहने एक अधेड़ व्यक्ति को देखा। आस पास किसी को भी ना पा कर मौलाना नाक भौं सिकोड़ता उस व्यक्ति के पास पहुंचा। किसी को अपने पास पा कर उस अधेड़ के हाथ, मांगने के अंदाज़ में फैल गए। 
"क्यों बे हिन्दू हो क्या ?" मौलाना ने पूछा।  अधेड़ ने अपना चेहरा आकाश की ओर कर दिया।
"धर्म परिवर्तन कर। मुसलमान बन जा। सब कुछ प्राप्त होगा। रोटी , कपडा , मकान , पैसा , ऐशो आराम , चार -चार बीबीयाँ " मौलाना ने उसके कान में कहा।
अधेड़ उसको अपने बहुत करीब पा कर सुकुड़ गया। मौलाना बोलता गया।
"क्या दिया है तुम्हारे धर्म ने तुमको। तुम्हारे देवी -देवताओं ने।  गरीबी , लाचारी , भुखमरी।"
अधेड़ की ओर से कोई उत्तर ना पा कर वह झुंझला गया।
अधेड़ ने कुछ नहीं कहा। फटी आँखों से वह उसको देखता रहा और अपने हाथ फिर मौलाना के सामने फैला दिए। तभी गाँव का चौधरी रामधन उनकी ओर आता दिखाई दिया। 
"अरे, मौलाना ! सुबह सुबह ! यहाँ पर। "चौधरी ने पूछा। 
"सलाम, चौधरी। इधर से निकल रहा था। इस गरीब को देखा तो सोचा इसके लिए अल्लाह से दुआ कर लूँ।
'यह! यह तो नूरबख्श है। तुम्हारी ही बिरादरी का है।  गूंगा -बहरा है।  रहने, खाने को लाले पड़े थे सो मैंने मंदिर के बाहर जगह दे दी। खाना भंडारे से खाता है।  जब तक इसके सगे सम्बन्धी का अता-पता नहीं मिल जाता तब तक तुम इसको अपनी मस्जिद में पनाह दे दो।  नमाज़िओं की सेवा भी करेगा और इसको भी दो वक़्त का खाना मिल जाएगा।" चौधरी ने मौलाना से कहा।
पर मौलवी सुन कर भी कुछ नहीं सुन रहा था। उसने उस अधेड़ का हाथ झटक दिया। ' तौबा  तौबा।  खुदा की मार तुझ पर।  मेरा वक़्त ज़ाया कर दिया।  पहले मालूम होता तो ........." अपनी बात पूरी किये बिना ही मौलाना करीमबक्श अपनी बस्ती की ओर निकल पड़ा।  चौधरी रामधन की समझ में कुछ नहीं आया।  उसने उस अधेड़ नूरबख्श को उठाया और अपनी बस्ती की और ले चला।
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सर्वाधिकार सुरक्षित /त्रिभवन कौल
595 words
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Tuesday 3 October 2017

'दीवार में आले ' :- हृदय की भावनाओं, गहरी सोच और संवेदनशीलता की अति सुन्दर प्रस्तुति


मेरे द्वारा लिखी ' दीवार के आले ' काव्य संग्रह की समीक्षा वीमेन एक्सप्रेस और विजय न्यूज़ में। 








'दीवार में आले ' :- हृदय की भावनाओं, गहरी सोच और संवेदनशीलता की अति सुन्दर प्रस्तुति
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दिनांक ०३ अक्टूबर वर्ष २०१४,  एक कवि सम्मेलन में एक कवि हृदय के मालिक श्री रामकिशोर उपाध्याय जी के सर्वप्रथम सुखद  सानिध्य को अनुभव किया I तब से आज तक उनको मैंने एक संकल्प सम्पन्न , संवेदनशील कवि और  अपने अनुभवों की प्रेरक  काव्य अभिव्यकता के रूप में ही जाना है।  उनके प्रथम काव्यसंग्रह '' ड्राइंग रूम के कोने' के प्रकाशन उपरांत मैंने अपना अभिमत देते हुए कहा था कि कवि श्रेष्ठ रामकिशोर उपाध्याय जी अपने कविताओं के माध्यम से पाठकों के मन के हर कोने को बड़ी ही सहजता और सलरता से छू लेतें हैं। यही बात यदि में उनके दुसरे काव्यसंग्रह ' दीवार में आले ' के विषय में कहूँ  तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस काव्यसंग्रह की  हर कविता भी कवि के हृदय की भावनाओं, गहरी सोच और संवेंदनशीलता की अति सुन्दर प्रस्तुति है. हर प्रकार की भावनाओं की अभिव्यक्ति को सटीक एवम सार्थक ढंग से भिन्न भिन्न प्रतीकों के सहारे शब्दों में पिरो कर, श्री रामकिशोर उपाध्याय जी  ने अपने इस नवीन काव्यसंग्रह में अपनी कल्पना की उड़ान को यथार्थ की डोर से पकडे  धरातल पर अंगद की पाँव समान  विविध शब्द चित्रण की माध्यम से एक इंद्रधनुषी आकार प्रधान किया है I ' दीवार में आले ' वास्तव में आलों के निकली रचनाएं हैं जो चिंतन एवं भाव प्रधान होने के साथ साथ कंही कंही  एक मनोरंजन का पुट लिए हुए भी हैं। हर कविता  मानो हम से कुछ कह रही हो। काव्य रुपी एक कहानी सी ,जिसमे चिंतन है , मनन है ,प्रवाह है , सरोकार है और एक गहन कथ्य की सहज और सरल काव्य अभिव्यक्ति है। 

पेड़ की तूने हर शाख काट डाली
नदिया तूने बाँध  डाली
पवन को अब तू टोकता है
धरा को गहरे तक खोदता है।........... और सोच कर बता कब थमेगा यह दौर। 

यह पंक्तियाँ कवि की चिंता को दर्शाता है। उस चिंता को जो पूरे संसार के लिए एक ज्वलंत समस्या बन गयी है। पर्यावरण की हो रही दुर्दशा पर 'मैं प्रकृति हूँ ' यह कविता वास्तव में मन को झकझोर देती है।   

अफ़सोस है कि मैं बकरी नहीं हूँ
इस मुल्क की प्रजा हूँ
अब देखना है कि यह बाड़ा 
मुझे कब तक रोक कर रखता है 
आखिर वह सुबह कभी तो आएगी।

जी ज़रा गौर से इन पंक्तियों को पढ़ें तो एक शब्द शिल्पी से हम जैसे पाठक रूबरू होते हैं। एक बकरी को प्रतीक मान कर बेचारी निरीह जनता उस सुबह की तलाश में है जो उसे शायद सभी समस्याओं से छुटकारा दिला सके। कवि की आशावादी प्रकृति इसी और इंगित करती  है। 

कवि की अंतर्दृष्टि से देखा जाए तो उनके वैचारिकता और उनकी व्यावहारिकता , दोनों का बोध उनकी कविताओं में हो जाता है। कवि ने अपनी रचनाओं को   अत्यंत ही प्रभावी ढ़ंग से समकालीन घटनाओं के संदर्भ में, स्थापित  विसंगतियों को, समाजिक परिवेश में में ही रख कर अपनी काव्य शक्ति के माध्यम से संयोजित कर कंही तीक्ष्ण कटाक्ष तो कभी कंही सीधा प्रहार किया है। रचनाएं चाहे छोटी हो या बड़ी , कवि के अपने विचार, ज्ञान, व्यवहारिक अंतर्दृष्टि और व्यक्तिगत अनुभवों के साथ प्रतिबिंबित और विस्तारित होती हैं। जहाँ ' एक फटा पैबंद ' कवि के अंदर छिपा क्रोध और विरोध से अवगत कराता है वहीं ' इंकलाब आएगा में ' कवि व्यवस्था से निराश भी है तो कहीं प्रश्न पूछते हैं ' ईश्वर तू कहीं है भी '

अब जा संभल
हिम्मत है तो कुछ कर
वर्ना पतली गली से आज ही निकल
कौन जाने ?
अगली घड़ी का हश्र। 

कवि की 'कौन जाने ' कविता में एक दार्शनिकता का बोध होता है।

कवि जज़्बातों का प्रेमी भी है और उनसे जुडी अनुभूतिओं का पुजारी भी। जहाँ तक किसी विषय पर काव्य रचना का सवाल है कवि का रूप बहुआयामी है। वह अपनी अनुभूतियों को सुदृढ़ मुक्तछंद काव्य शिल्प में जिया है। कामना, मधुशाला , लिख दो बस प्यार , छोटी से चाहत , आज तुम मिले आदि रचनाएँ बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ में दीवार के आलों में मानो सजा कर रखी हों।  बस आलों से निकाल कर पढ़ने की देर है।

 मैंने फेसबुक पर, कवि सम्मेलनों में, काव्य गोष्ठियों में श्री रामकिशोर उपाध्याय जी को गीत, गीतिका , छंद इत्यादि भी लिखते और पाठ करते देखा है। उनकी इन विधाओं में रचित रचनाएँ भी उच्च स्तर की रहती हैं पर प्रस्तुत काव्यसंग्रह ना जाने क्यों इनसे अछूता रह गया है। इसका थोड़ा सा मलाल ज़रूर है।

एक मूर्धन्य कवि से जो ईमानदारी बरतने की आशा की जाती है उसमे श्री रामकिशोर उपाध्याय जी खरे उतरते हैं। हर कविता  समकालीन /तत्कालीन वातावरण का भरपूर निर्वाह करती हैं। हर विषय एक जीवंत विषय लगता है। अभिव्यक्ति स्पष्ट और सटीक है। पाठको को अपने साथ ले कर चलते हैं  और एक उत्साहित काव्य अनुयायी होने के नाते  मैं उनको 'दीवार में आले ' काव्य संग्रह के लिए उनको हार्दिक बधाई देता हूँ। आशा करता हूँ कि निकट भविष्य में  उनकी बहुआयामी काव्य प्रतिभा (काव्य की अन्य विधाओं में रचित रचनाएँ) का स्वाद भी चखने को मिलेगा।

त्रिभवन कौल
स्वतंत्र लेखक –कवि
03-10-2017

काव्यसंगह :- दीवार में आले
रचनाकार  :- रामकिशोर उपाध्याय
प्रकाशक :- गीतिका प्रकाशन , बिजनौर (उ प्र )
मूल्य :- २०० रूपये

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